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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ गंगदत्त का पूर्वभव
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तेणं समगणं मुणिमुब्बए अग्हा आइगरं जाव मव्वष्णू सव्वदग्मिी आगामगएणं चक्केणं जाव पकाइटजमाणेणं प० २ मीसगणसंपरिबुडे पुत्राणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं० जाव जेणेव महसंदवणे उजाणे जाव विहरइ । परिमा णिग्गया जाव पज्जुवासइ । तएणं मे गंगदत्ते माहावइ इमीसे कहाए लट्टे ममाणे हट्टतुट जाव कय. बलि जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पायविहारचारेणं हथिणापुरं णयरं मझमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव महसंक्वणे उजाणे जेणेव मुणिसुब्बए अरहा तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मुणिसुव्वयं अरहं तिक्खुत्तो आयाहिण० जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ ।
कठिन शब्दार्थ-पडिज्जमाणेणं-खींचे जाते हुए।
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! उस गंगदत्त देव की वह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई ?
५ उत्तर-हे गौतम ! वह दिव्य देवद्धि यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हुई । यहां कुटागार शाला का दृष्टांत समझना चाहिये यावत् 'वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई।' अहो ! भगवन् ! यह गंगवत देव महद्धिक यावत् महासुख वाला है।
६ प्रश्न-हे भगवन् ! गंगदत्त देव को वह दिव्य देवति यावत् किस प्रकार प्राप्त हुई यावत् अभिसमन्वागत (सम्मुख) हुई ?
६ उत्तर-'हे गौतम ! उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर था (वर्णन) । वहां सहस्त्रान बन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर नगर में आठप यावत् अपरिभूत सा गंगवत्त
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