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श. १६ उ.८ लोक के अन्त मे जीव का अस्तित्व
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५ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि जाव अजीवप्पएसा वि, जे जीवदेमा ते णियमं एगिदियदेसा, अहवा एगिंदियदेसा य वेइंदियस्स देसे, अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियाण य देसा, एवं मझिल्लविरहिओ जाव आणदियाणं । पएसा आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते तहेव । अजीवा जहेव उवरिल्ले चरिमंते तहेव ।
कठिन शब्दार्थ-केमहालए-कितना बड़ा, आइल्ल-आदि का-पहले का, अद्धासमयोकाल, हेटिल्ले-नीचे के, पुरच्छिमिल्ले-पूर्व का, चरिमते-अंतिम किनारा ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक कितना बड़ा कहा है ?
१ उत्तर-है गौतम ! लोक अत्यन्त बड़ा कहा है। वक्तव्यता बारहवें . शतक के सातवें उद्देशक के अनुसार यावत् उस लोक का परिक्षेप (परिधि) असंख्येय कोटाकोटि योजन है ।
२ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के पूर्व चरमान्त में जीव हैं, जीव के देश हैं, जीव प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश हैं ?
२ उत्तर-हे गौतम ! वहाँ जीव नहीं, परन्तु जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव है, अजीव के देश ह और अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और एक बेइंद्रिय जीव का एक देश है, इत्यादि दसवें शतक के पहले उद्देशक में कथित आग्नेयी दिशा की वक्तव्यता के अनुसार जानना चाहिए । विशेषता यह है कि-बहुत देशों के विषय में अनिन्द्रियों के सम्बन्ध में प्रथम भंग नहीं कहना चाहिए, तथा वहां जो अरूपी अजीव हैं, वे छह प्रकार के कहे गये हैं, क्योंकि वहां अद्धासमय (काल) नहीं है । शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए।
३ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के दक्षिण दिशा के चरमान्त में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न ?
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