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________________ भगवती सूत्र - १४ उ ५ जीवों का अग्नि प्रवेश के उत्तर - हाँ, जलता है । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि'कोई अग्नि में होकर जाता है और कोई नहीं जाता।' इसी प्रकार मनुष्य विषय में भी कहना चाहिये । असुरकुमारों के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी कहना चाहिये । विवेचन - विग्रह गति को प्राप्त जीव, विग्रहगति समापन्नक कहलाता है। वह कार्मण शरीर युक्त होता है। कार्मण शरीर सूक्ष्म होने से उस पर अग्नि आदि शस्त्र असर. नहीं कर सकते । २३१५ अविग्रहगति समापन्नक का अर्थ है- उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त । किन्तु अविग्रहगतिसमापन्नक का अर्थ 'ऋजुगति प्राप्त' - यह अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है । क्यों कि उसका यहां प्रकरण नहीं है । उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त नैरयिक जीव, अग्निकाय के बीच में होकर नहीं जाता, क्योंकि नरक में बादर अग्निकाय का अभाव है । बादर अग्निकाय का सद्भाव मनुष्य क्षेत्र में ही है । उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में "हुयासणे जलंतम्मि दडपुव्वो अणेगसो" इत्यादि वर्णन आया है । वहाँ वह अग्नि के समान कोई उष्ण द्रव्य समझना चाहिये । विग्रहगति प्राप्त अमुरकुमार का वर्णन, विग्रह गति प्राप्त नैरयिक के समान जानना चाहिये | अविग्रगति प्राप्त ( अर्थात् उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त हुआ) असुरकुमार जो मनुष्यलोक में आता है, वह यदि अग्नि के मध्य में होकर जाता है, तो वह जलता नहीं, क्यों कि वैक्रिय शरीर अति सूक्ष्म है और उसकी गति अति शीघ्र है । जो असुरकुमार मनुष्यलोक में नहीं आता, वह अग्नि के बीच में होकर नहीं जाता । विग्रह - गति प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जाते हैं । वे सूक्ष्म होने अग्नि के बीच में होकर नहीं जाते, होने से उनका अग्नि के बीच में होकर से जलते नहीं है । अविग्रहगति प्राप्त एकेन्द्रिय जीव, क्योंकि वे स्थावर हैं । अग्नि और वायु, गति त्रस जाना संभव है । किन्तु यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है । यहाँ तो स्थावरपने की विवक्षा है । स्थावर जीवों में गति का अभाव है । वायु आदि की प्रेरणा से पृथ्वी आदि का अग्नि के मध्य में गमन संभव है । परन्तु यहाँ पर स्वतन्त्रतापूर्वक गमन की विवक्षा की गई है । एकेन्द्रिय जीव, स्थावर होने से स्वतन्त्रतापूर्वक अग्नि के मध्य में होकर नहीं जा सकते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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