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२५१४ भगवती सूत्र - श. १६ उ. १ शरीर इन्द्रियां योग और अधिकरण
१५ जीवे णं भंते ! आहारगसरीरं णिव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी - पुच्छा |
१५ उत्तर - गोयमा ! अधिकरणी वि अधिकरणं पि । प्रश्न - सेकेण्डेणं जाव अधिकरणं पि ?
उत्तर - गोयमा ! पमायं पडुच्च, से तेणट्टेणं जाव अधिकरणं पि । एवं मणुस्से वि, तेयासरीरं जहा ओरालियं, णवरं सव्यजीवाणं भाणियव्वं, एवं कम्मगसरीरं ।
कठिन शब्दार्थ- पमायं-प्रमाद (मद्य विषय कषायादि से दूषित दशा ) । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर को बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ?
१३ उत्तर - हे गौतम! अधिकरणी भी है और अधिकरण भी । प्रश्न - हे भगवन् ! वह अधिकरणी और अधिकरण क्यों है ? उत्तर - हे गौतम ! अविरति के कारण यावत् अधिकरण भी है ।
१४ प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर को बांधता हुआ पृथ्वीकायिक जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ?
१४ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिये और इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के विषय में भी जानना चाहिये । जिन जीवों के जो शरीर हो उनके वही कहना चाहिये ।
१५ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक शरीर बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ?
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१५ उत्तर - हे गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी । प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण उसे अधिकरणी और अधिकरण
कहते हैं ?
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