SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र-श १४ उ. ७ आहागदि में मिन-अमूच्छिन अगार :३४ - १० उत्तर-हंता गोयमा ! भत्तपञ्चकवायए णं अणगारे तं चैव । प्रश्न-मे केणट्टेणं भंते ! एवं बुचड़-भत्तपञ्चकवायए णं तं चेव ? ___ उत्तर-गोयमा ! भत्तपञ्चकवायए णं अणगार मुच्छिए जाव अन्झोववण्णे आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए जाव आहारे भवइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव आहारमाहारेड । कठिन शब्दार्थ-मुच्छिए-मन्छिन, वीससाए-म्वाभाविक रूप से । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान (आहार का त्याग) करने वाला अनगार, मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है और इसके बाद स्वाभाविक रूप से काल करता है ? इसके बाद अमूच्छित अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार, पूर्वोक्त रूप से. आहार करता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार, प्रथम मच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है । इसके बाद स्वाभाविक रूप से काल करता है। इसके बाद यावत् आहार के विषय में अमूच्छिता राग रहित) होकर आहार करता है । इसलिये हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अन्गार पूर्वोक्त रूप से यावत् आहार करता है । विवेचन-भक्त-प्रत्याख्यान करने वाले किसी अनगार की ऐसी स्थिति बनती है । इसलिये उसका यहाँ निर्देश किया गया है । पहले तीव्र क्षुधा-वेदनीय कर्म के उदय से वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy