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________________ भगवती मुत्र- १४ उ. , द्रव्यादि की तुल्यता संठाणओ तुल्ले, परिमण्डलसंठाणे परिमंडलमंठाणवइरित्तम्म मंठाणओ णो तुल्ले, एवं वट्टे तंप्ते चउरंसे आयए, समचउरंसमंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउरंससंठाणवइ. रित्तस्स संठाणस्स संठाणओ णो तुल्ले, एवं जाव परिमंडले वि, एवं जाव हुंडे, से तेणटेणं जाव 'संठाणतुल्लए' संठाणतुल्लए । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान तुल्य, 'संस्थान तुल्य' क्यों कहलाता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! परिमण्डल संस्थान, अन्य परिमण्डल संस्थान के साथ संस्थान तुल्य है, किन्तु दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान तुल्य नहीं है । इसी प्रकार वृत्त संस्थान, व्यस्त्र संस्थान, चतुरस्र संस्थान और आयत संस्थान के विषय में भी कहना चाहिये। एक समचतुरस्र संस्थान, अन्य समचतुरस्र संस्थान के साथ संस्थान तुल्य है, परन्तु समचतुरस्त्र के अतिरिक्त दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान तुल्य नहीं है । इसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल यावत् हुण्डक संस्थान तक कहना चाहिये । इस कारण हे गौतम ! संस्थान तुल्य, 'संस्थान तुल्य' कहलाता है। विवेचन-कर्मों का उदय अथवा कर्मों के उदय में होने वाला जीव का परिणाम 'औदयिक भाव' कहलाता है । उदय प्राप्त कर्म का क्षय और उदय में नहीं आये हुए कर्म को अमुक काल तक रोकना 'औपशमिक भाव' है। अथवा कर्मों के उपशम से होने वाला जीव का परिणाम औपशमिक भाव' कहलाता हैं । कर्मों का क्षय अथवा कर्मों के क्षय से होने वाला जीव का परिणाम क्षायिक भाव' कहलाता है । उदय प्राप्त कर्म के नाश के साथ विपाकोदय को रोकना 'क्षायोपगमिक भाव' कहलाता है । अथवा कर्मो के क्षय तथा उपशम से होने वाला जीव का परिणाम 'क्षायोपमिक भाव' कहलाता है। क्षायोपशमिक भाव में विपाक वेदन नहीं होता, परन्तु प्रदेश वेदन होता है । औपथमिक भाव में विपाक-वेदन और प्रदेश-वेदन दोनों नहीं होते । क्षायोपशमिक.भाव और औपशमिक भाव में यही अन्तर है । जीव का अनादि काल में जो स्वाभाविक परिणाम है, वह पारि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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