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मगवती सूत्र-दा. १४ उ. ७ द्रव्यादि की तुल्यता
णामिक भाव' कहलाता है । औदयिक आदि दो-तीन भावों के संयोग में उत्पन्न होने वाला 'मानिपातिक भाद' कहलाता है ।
__आकार विशेष को 'मम्यान' कहते हैं। इसके दो भेद हैं । जीव संस्थान और अजीव मम्थान । अजीव संस्थान के पांच भेद हैं। यथा-(१) परिमण्डल-चूड़ी के समान बाहर से गोल और बीच में पोला होता है । इसके दो भेद हैं-घन और प्रतर । (२)वृत्तकुम्हार के चाक के समान बाहर से गाल और भीतर मे पोलान रहित होता है । इसके भी दो भेद है-घन और प्रतर । इन प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं। समसंख्या वाले प्रदेश युक्त और विषम संख्या वाले प्रदेश युक्त । (३) त्र्यम्र-त्रिकोण आकार वाला होता है । (४) चतुरस्र-चार कोनों वाला होता है। (५) आयत-दण्ड की तरह लम्बा होता है। तीन भेद हैं-श्रेण्यायत, प्रन गयन और घनायन । इनके प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं। समसंख्या वाले प्रदेश युक्त और विपम मख्या वाले प्रदेश युक्त । यह पांच प्रकार का संस्थानविस्रमा और प्रयोगमा होता है।
___ मम्थान नामकर्म के उदय से जीवों का जो आकार विशेष होता है, उसे 'जीव संस्थान' कहते है । इसके समचतुरस्र आदि छह भेद होते हैं । यथा-(१) समचतुरस्र-सम का अर्थ है-ममान, वन का अर्थ है-चार और 'अत्र' का अर्थ है-कोण । पालथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अर्थात् आसन और कपाल का अन्तर, दोनों घटनों का अन्तर. बाएं कन्धे और दाहिने घुटने का अन्तर तथा दाहिने कन्धे और बाएं घुटने का अन्तर समान हो, उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं।
अथवा-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव ठीक प्रमाण वाले हों, उसे 'समचतुरस्र संस्थान' कहते हैं ।
(२) न्यग्रोधपरिमण्डल-वट वृक्ष को 'न्यग्रोध' कहते हैं । जैसे वट वृक्ष ऊपर के भाग में फैला हुआ होता है और नीचे के भाग में संकुचित होता हैं, उसी प्रकार जिस संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तार वाला अर्थात् सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए प्रमाण वाला हो और नीचे का भाग हीन अवयव वाला हो, उसे 'न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान' कहते हैं।
• यद्यपि टीका में ममचतुरम सम्थान के उपरोक्त दोनों अर्थ मिलते हैं, किंतु पहला अर्थ गाय, भंस, सपं आदि तियंञ्चों में घटित नहीं हो सकता, जब कि समचतुरस्र संस्थान तियंञ्चों में भी पाया जाता है। इमलिए, 'समचतुरस्र 'संस्थान का जो दूसरा अर्थ दिया है, वह ठीक है। वह मनुष्य, तिर्यञ्च आदि सब में पटित हो सकता है।
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