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भगवती सूत्र - श. १५
तेजोलेश्या की साधना x जिन प्रलापी....
तेजोलेश्या की साधना
८-तणं से गोमाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासरणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड् बाहाओ पगिज्झिय २ जाव विहरड़ । तरणं मे गोसाले मंखलिपुत्ते अंतो छहं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से जाए ।
कठिन शब्दार्थ - बियडासएण - विकटाशय या विकटाश्रय अर्थात् चुल्लू भर पानी ।
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भावार्थ -८- इसके बाद वह मंखलिपुत्र गोशालक, उड़द के बाकलों को नख सहित एक मुट्ठी से और एक चुल्लू भर पानी के द्वारा निरन्तर छठ-छठ के तप के साथ दोनों हाथ ऊंचा रख कर और सूर्य के सम्मुख खड़ा रह कर आतापना भूमि में आतापना लेने लगा । ऐसा करते हुए छह मास के अन्त में गोशालक को संक्षिप्त-विपुल तेजोश्या उत्पन्न हो गई ।
जिन - प्रलापी गोशालक का रोष
९ - तरणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णया कयाड़ इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउ भवित्था, तं जहा - साणे तं चेव, सव्वं जाव अजिणे जिणसहं पगासेमाणे विहरह, तं णो खलु गोयमा ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव जिणसद्दं पगासेमाणे विहरइ, गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे, जिणप्पलावी
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