________________
भगवती सूत्र-स. १५ भगवान् से गोशाक का सम गम
२३७२
मित्ति कटु तुट्टे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, पडिलाभिए वि तुटे । तएणं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुधेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुदधेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए णिवधे, मंसारे परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच दिवाई पाउन्भूयाई, तं जहा-१ वसुधारा वुट्टा २ दसवण्णे कुसुमे णिवाइए २ चेलुक्खेवे कए ४ आहयाओ देवदुंदुभीओ ५ अंतरा वि य णं आगासे-'अहो दाणे, अहो दाणे' त्ति घुटे ।
कठिन शब्दार्थ-पाउयाओ-पादुका को, ओमुयइ--छोड़ना है ।
भावार्थ-मुझे प्रवेश करते देख कर विजय गाथापति प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ। वह शीघ्र ही सिंहासन से नीचे उतरा और पादुका (खड़ाऊ) का त्याग किया। फिर एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। दोनो हाथ छोड़ कर सातआठ चरण मेरे सामने आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। 'आज में भगवान् को पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से प्रतिलागा'-ऐसा विचार कर सन्तुष्ट हुआ। वह प्रतिलाभते समय भी सन्तुष्ट हुआ था और प्रतिलाभित करने के बाद भी सन्तुष्ट रहा । विजय गाथापति ने द्रव्य को शुद्धि से, दायक की शुद्धि से और पात्र की शुद्धि से तथा त्रिविध (मन, वचन, काया) और तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदित) को शुद्धि से मुझे प्रतिलाभित करने के निमित्त से देव का आयुष्य बांधा । संसार परिमित किया। दान के प्रभाव से उसके घर में पांच दिव्य प्रकट हुए। यथा-१ वसुधारा की वृष्टि २ पांच वर्ण के पुष्पों की वृष्टि ३ ध्वजा रूप वस्त्र का फहराना ४ देवदुन्दुभि का वादन और ५ आकाश में- अहो दान, अहोदान' की ध्वनि ।
तएणं रामगिहे णयरे सिंघाडग० जाव पहेसु बहुजणो अण्ण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org