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२३८०. भगवती सूत्र - श. १५ भगवान् से गोशालक का समागम
मण्णस्म एवमाइक्खड़, जाव एवं परूवेड़- 'धणे णं देवाणुप्पिया ! विजय गाहावई, कत्थे णं देवाणुपिया ! विजए गाहावई, कयपुण्णे णं देवापिया ! विजए गाहावई, कयलक्खणे णं देवाशुप्पिया ! विजए गाहावई, कपा णं लोया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहा वइस्स, सुद्धे णं देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयरस गाहावइस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साहु साहुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंचदिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा - १ वसुधारा बुट्टा, जाव - 'अहो दाणे अहो दाणे' त्ति घुडे, तं धण्णे, कयत्थे, कयपुण्णे, कलक्खणे, कया णं लोया, सुलधे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स विजयस्स गाहावइस्स' ।
भावार्थ - राजगृह नगर में शृंगाटक त्रिकमार्ग यावत् राजमार्गों में बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे यावत् प्ररूपणा करने लगे कि - हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति धन्य है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतार्थ है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतपुण्य ( पुण्यशाली ) है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतलक्षण ( उत्तम लक्षणों वाला ) है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति के उभय लोक सार्थक हैं और विजय गाथापति का मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन का फल प्रशंसनीय है । जिस के घर में तथारूप के उत्तम सौम्य आकार वाले श्रमण को प्रतिलामित करने से ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं, यावत् 'अहोदान' 'अहोदान' की उद्घोषणा हुई है, इसलिये विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है। उसके दोनों लोक सार्थक है और उस विजय गाथापति का मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन का फल प्रशंसनीय है ।
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