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भगवती सूत्र - श. १५ भगवान् से गोशालक का समागम
मामि, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंदा बाहिरियं मज्झंमज्झेणं जेणेव रायगिहे णयरे तेणेव उवागच्छामि, रायगिहे णयरे उच्चणीय० जाव अडमाणे विजयस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविट्टे ।
कठिन शब्दार्थ - अडमाणे- फिरते हुए ।
भावार्थ - उस समय मंखलिपुत्र गोशालक, चित्रपट से आजीविका करता हुआ, अनुक्रम से एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगृह आया और नालन्दापाड़ा के बाहरी भाग में, बुनकर की शाला के एक भाग में अपना भण्डोपकरण रखा । फिर राजगृह नगर में ऊँच नीच और मध्यम कुल में भिक्षा के लिये जाते हुए, उसने वर्षावास के लिये दूसरा स्थान ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु उसे कहीं स्थान नहीं मिला । अतः जिस तन्तुवाय शाला के एक भाग में में रहा हुआ था, वहीं वह भी रहने लगा । हे गौतम! में प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुवायशाला से निकला और नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में आया। फिर ऊँच नीच और मध्यम कुल में यावत् आहार के लिये फिरते हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया ।
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तुडु०
तरणं से विजए गाहावई ममं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट ० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्ठेड़, खिप्पामेव आसणाओ अब्भुद्विता पायपीढाओ पच्चोरूहड़ पायपीढाओ पचोरू हित्ता पाउयाओ ओमुयह, पाउयाओ ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करिता अंजलिम उलियहत्थे ममं सत्तटुपयाई अणुगच्छह, अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता ममं वंदड़ णमंसह, णमंसित्ता ममं विउलेणं असण- पाणखाइमसाइमेणं पडिला भेस्सा
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