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भगवती मूत्र-स. १५ भगवान् से गोशालक का समागम
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कठिन शब्दार्थ-णिम्साए-निधाय मे-आश्रय लेकर, उवागए-आया।
भावार्थ-३-हे गौतम ! उस काल उस समय तीस वर्ष तक गृहवास में रह कर और माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर (आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुत स्कन्ध के पन्द्रहवें भावना अध्ययन के अनुसार-'माता-पिता के जीवित रहते मैं दीक्षा नहीं लंगा'-इस प्रकार का अभिग्रह पूर्ण होने पर, मैंने सुवर्णादि का त्याग कर इत्यादि यावत्) एक देवदूष्य वस्त्र को ग्रहण कर मुण्डित हुआ और गृहस्थवास का त्याग कर अनगार प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय हे गौतम ! मैं पहले वर्ष में, अर्द्धमास-अर्द्धमास क्षमण करते हुए, अस्थिक ग्राम की निश्रा में, प्रथम वर्षावास रहने के लिये आया। दूसरे वर्ष में मास-मास क्षमण. युक्त अनुक्रम से विहार करते हुए, राजगृह नगर के नालन्दा पाड़ा में आया और नालन्दा पाड़ा के बाह्य भाग मे, तन्तु वाय (कपड़ा बुनने-वाले की) शाला के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके वर्षावास रहा । तत् पश्चात् हे गौतम ! मैं प्रथम नासक्षमण स्वीकार कर विचरने लगा।
तएणं मे गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं . अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुट् िचरमाणे जाव दूडजमाणे जेणेव रायगिहे णयरे, जेणेव णालंदा वाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडणिक्खेवं करेइ, भंडणिक्खेवं करित्ता रायगिहे णयरे उच्च णीय० जाव अण्णस्थ कत्थ वि वसहिं अलभमाणे तीसे य तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए, जत्थेव णं अहं गोयमा ! तएणं अहं गोयमा ! पढममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिवख
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