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भगवती मूत्र-श. १४ उ. ५ जीवों का अग्नि प्रवेश
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वीइवएजा।
प्रश्न-से केणटेणं जाव णो वीइवएजा ?
उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाविग्गहगइसमावण्णगा य अविग्गहगइसमावष्णगा य । तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे से णं-एवं जहेव गेग्इए जाव 'कमई । तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएजा।
प्रश्न-जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा ?
उत्तर-णो इणटे, समटे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, से तेणटेणं०, एवं जाव थणियकुमारे । एगिदिया जहा गैरइया ।
कठिन शब्दार्थ-झियाएज्जा-जलता है । कमइ-जाता है-लगता है।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नारक जीव, अग्निकाय के बीच में होकर जा सकता है ?
१ उत्तर-हे गौतम ! कोई नरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? • उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-विग्रहगति समापन्नक (एक गति से दूसरी गति में जाते हुए) और अविग्रह-गति-समापन्नक (उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त हुए)। इनमें से जो विग्रहगति समापनक हैं। वे अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं।
प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वे अग्नि से जलते हैं ?
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