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भगवती मूत्र-स. १३ उ. २ देवावामा की भव्या विम्नागदि
कठिन शब्दार्थ--गवेज्जगा--ग्रेवेयक ।
भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन ! आनत और प्रागत देवलोकों में कितने सौ विमानावास कहे हैं ?
११ उत्तर-हे गौतम ! चार सौ विमानावास कहे हैं।
प्रश्न-हे भगवन् ! वे विमानावास संख्यात योजन विस्तृत हैं या असख्यात योजन विस्तृत ?
उत्तर-हे गौतम ! संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी है । संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों के विषय में सहस्रार देवलोक के समान तीन आलापक कहने चाहिये। असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में उत्पाद और चवन के विषय में 'संख्यात' और सत्ता में 'असंख्यात' कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि नो-इन्द्रियोपयुक्त, अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक, इन पांच पदों के विषय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात. उत्पन्न होते हैं । एवं पदों में असंख्यात होते हैं। जिस प्रकार आनत और प्राणत के विषय में कहा, उसी प्रकार आरण और अच्युत के विषय में भी कहना चाहिये । विमानों की संख्या में अन्तर है। इसी प्रकार अवेयक देवलोकों के विषय में भी कहना चाहिये।
- विवेचन--आनतादि देवलोकों में संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता में संख्यात देव होते हैं । असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में, उत्पाद और च्यवन में संख्यात और सत्ता में असख्यात देव होते हैं । क्यों कि गर्भज मनुष्य ही मर कर आनतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव, वहाँ से व्यव कर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होने हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं । इसलिये एक ममय में संख्यात का ही उत्पाद और संख्यात का ही च्यवन हो सकता है। उन देवों का आयुष्य भी असंख्यात वर्ष का होता है, इसलिये उनके जीवन काल में असंख्यात देव उत्पन्न होते हैं । इसलिये 'सत्ता' में असंख्यात होते हैं-ऐसा कहा गया है । परन्तु नो-इन्द्रियोपयुक्त आदि पांच पदों में तो संख्यात ही होते हैं, क्योंकि यह अवस्था केवल उत्पत्ति के समय ही
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