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भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक की गति
समणीओ य खामेइ, खामित्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते काल. मासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूरिय० जाव आणय-पाणया रणकप्पे वीइवइत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे । तत्थ णं अस्थेगइ. याणं देवाणं वावीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं सुणक्खत्तस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई, सेसं जहा सव्वाणुभूइस्स जाव अंतं काहिइ।
कठिन शब्दार्थ-उड्ढे-ऊँचा ।
भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कोशल देशोत्पन्न भद्र प्रकृति और विनीत सुनक्षत्र नामक अनगार को जब गोशालक ने तप तेज से परितापित किया, तब वह काल कर के कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ?
३७ उत्तर-हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी सुनक्षत्र अनगार, गोशालक के तप-तेज से परितापित होकर मेरे पास आया, मुझे वन्दना-नमस्कार करके स्वयमेव पाँच महावतों का उच्चारण किया और श्रमण-श्रमणियों को खमाया, फिर आलोचना-प्रतिक्रमण करके, समाधि प्राप्त कर, काल के समय में काल करके ऊँचे चन्द्र और सूर्य को यावत् आणत, प्राणत और आरण कल्प को उल्लंघन कर अच्युत देवलोक में देवपने उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। उनमें सुनक्षत्र देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। शेष सभी सर्वानुभूति अनगारवत् यावत् वह सभी दुःखों का अन्त करेगा।
गोशालक की गति
३८ प्रश्न-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले
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