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________________ ...... भगवती मूत्र-श. १५ श्रमणों को मौन रहने की सूचना २४७ धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोपउ, धम्मियाए पडिसारणाए पडि. सारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ, गोसाले णं मंग्वलिपुत्ते समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छ विपडिवण्णे। तपणं से आणंदे थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसद, वंदित्ता णमंमित्ता जेणेव गोयमाइ ममणा णिग्गंथा तेणेव उवागच्छड़, तेणेव उवागच्छित्ता गोयमाइ समणे णिग्गंथे आमं. तेइ, आमंतित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु अन्जो ! छट्टवखमणपारण. गंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे सावत्थीए णयरीए उच्च-णीय तं चेव सव्वं जाव णायपुत्तस्स एयमढें परिकहेहि, तं मा णं अज्जो ! तुम्भं केइ गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडि. चोयणाए पडिचोएउ, जाव मिच्छं विपडिवण्णे । कठिन शब्दार्थ--पडिचोयणाए--प्रेरणा, पडिसाहरणाए-भूली हुई बात को याद दिलाना, पडोयारेणं-प्रत्युपचार द्वारा या प्रत्युपकार द्वारा, विपडिवण्णे-विरोधी हो गया है। भावार्थ-१२-हे आनन्द ! इसलिये तू जा और गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को कह कि "हे आर्यों ! गोशालक के साथ उसके मत के प्रतिकूल तुम कोई भी धर्म सम्बन्धी चर्चा, प्रतिसारणा (उसके मत के प्रतिकूल अर्थ को स्मरण कराने रूप) तथा प्रत्युपचार (तिरस्कार रूप वचन) मत करना । गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेषतः मिथ्यात्व म्लेच्छपन अथवा अनार्यपन) धारण किया है। भगवान् को वन्दना नमस्कार करके आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों के पास आये और उन्हें सम्बोधन कर इस प्रकार कहा-“हे आर्यो ! आज छठक्षमण पारणे के लिए श्रमण भगवान् महा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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