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भगवती मूत्र-ग. १५ शिष्यत्व ग्रहग
गसणं करेइ, ममं कत्थवि सुई वा खुई वा पवित्तिं वा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छद, तेणेव उवागच्छित्ता साडियाओ य पाडियाओं य कुंडियाओ य वाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेड़, आयामेत्ता सउत्तरोठं मुंडं कारेइ, सउत्त. रोटुं मुडं कारिता तंतुवायसालओ पडिणिक्खमइ, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंदं वाहिरियं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिन्ना जेणेव कोल्लागसण्णिवेसे तेणेव उवागच्छइ । तएणं तस्स कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स बहिया बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ. जाव परूवेड़-'धण्णे णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चेव जाव जीवियफले बहुलस्म माहणस्स बहुलस्स माहणस्स ।'
__ कठिन शब्दार्थ-मग्गणगवेसणं-मार्ग की खोज करना (ढूंढना), खुइं-क्षुति (छींक), सउत्तरोनें-दाढ़ी और मूंछ सहित ।
- भावार्थ-४-इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में नहीं देखा, तो उसने राजगह नगर के बाहर और भीतर सभी ओर मेरी खोज की, परन्तु कहीं भी मेरी श्रुति (शब्द) और क्षुति (छोंक) और प्रवृत्ति न पाकर पुनः तन्तुवायशाला में गया। उसने अपनी शाटिका (अन्दर पहनने का वस्त्र)पाटिका (ऊपर पहनने का वस्त्र) कुण्डी, उपानत (पगरखियाँ) और चित्रपट, ब्राह्मगों को देकर दाढ़ी और मूंछ सहित मस्तक का मुण्डन करवाया, फिर तन्तुवायशाला और नालन्दापाड़ा से निकल कर कोल्लाक सन्निवेश में आया। कोल्लक सन्निवेश के बाहरी भाग में बहुत-से मनुष्य परस्पर इस प्रकार बातें कर रहे थे-'हे देवानुप्रियो ! बहुल ब्राह्मण धन्य है' इत्यादि, पूर्वोक्त यावत् बहुल ब्राह्मग का जन्म और जीवन का फल प्रशंसनीय है।'
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