________________
२३८४
भगवती मूत्र-स. १५ शिष्यत्व ग्रहण
गच्छिता कोल्लाए सण्णिवेसे उच्च-णीय० जाव अडमाणस्स बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पवितु। तएणं से बहुले माहणे ममं एजमाणं तहेव जाव ममं विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं पडिलाभिस्सामिति तुटे। सेसं जहा विजयस्स, जाव बहुले माहणे बहुले माहणे।
कठिन शब्दार्थ-महुघयसंजुत्तेणं-मधु (शक्कर) और घृत से युक्त । ___ भावार्थ-नालन्दा के बाहरी भाग से कुछ दूर 'कोल्लाक' नामक सन्निवेश (ग्राम) था। (वर्णन)कोल्लाक सन्निवेश में बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था । वह आढय यावत् अपराभूत था। वह ऋग्वेद आदि में निपुण था। उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिक चातुर्मास की प्रतिपदा के दिन पुष्कल, मधु और घी से संयुक्त परमान (खीर)द्वारा ब्राह्मणों को भोजन कराया। हे गौतम ! चौथे मासक्षमण के पारणे के लिये तन्तुवायशाला से निकल कर कोल्लाक सन्निवेश में ऊंच नीच और मध्यम कुलों में भिक्षाचरी के लिये जाते हुए मैने बहुल ब्राह्मग के घर में प्रवेश किया। बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते हुए देखा, इत्यादि पूर्ववत् । यावत् 'मैं मधु (खांड) और घृत संयुक्त परमान से प्रतिला गा'-ऐसा विचार कर बहुल ब्राह्मण सन्तुष्ट हुआ। शेष पूर्ववत् यावत् 'बहुल ब्राह्मण धन्य है।'
विवेचन-जो आहारादि उद्गमादि दोषों से रहित होता है, वह 'द्रव्य-शुद्ध' कहलाता है। किसी भी प्रकार की आशंसा (इह लोकादि फल प्राप्ति की इच्छा) से रहित होकर जो दाता, दान देता है, वह 'दायक-शुद्ध' कहलाता है । लेने वाला निर्ग्रन्य निस्पृह भाव से केवल संयम यात्रा के निर्वाह के लिये लेता है, वह 'पात्र-शुद्ध' कहलाता है ।
४-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए अपासमाणे रायगिहे णयरे सम्भितरवाहिरियाए ममं सव्वओ समंता मग्गण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org