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________________ २४०२ भगवती सूत्र-श. १५ जिन-प्रलापी गोशालक का रोप गोशालक 'जिन' होकर अपने आपको 'जिन' कहता हुआ विचरता है। यह बात मिथ्या है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-"मंखलिपुत्र गोशालक का-'मंखलि' नामक मंख (भिक्षाचर विशेष) पिता था, इत्यादि । पूर्वोक्त सारा वर्णन यावत् गोशालक 'जिन' नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है"-तक जानना चाहिए। इसलिए मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है । वह व्यर्थ ही 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ विचरता है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी 'जिन' हैं, यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा, णिसम्म आसुरुत्ते, जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पञ्चोकहइ, आयावणभूमीओ पच्चोरुहित्ता सावत्थिं णयरिं मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजी. वियसंघसंपरिबुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं यावि विहरइ । कठिन शब्दार्थ-अमरिसं-अमर्प-क्रोध । भावार्थ-यह बात गोशालक ने बहुत से मनुष्यों से सुनी । सुनते ही वह अत्यन्त कुपित हुआ, यावत् मिसमिसाट करता हुआ (क्रोध से दांत पीसता हुआ) आतापना भूमि से नीचे उतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ, होलाहला कुमारिन की बर्तनों को दूकान पर आया । वह आजीविक संघ से परिवृत होकर अत्यन्त अमर्ष (क्रोध) को धारण करता रहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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