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भगवती सूत्र-दा. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत
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व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत
१०-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णाम थेरे पगइभदए जाव विणीए छटुं-छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवमा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तएणं से आणंदे थेरे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव उच्च-णीयमज्झिम, जाव अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकागवणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयइ । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं क्यासी-एहि ताव आणंदा ! इओ एगं महं उवमियं णिसामेहि ।' तएणं से आणंदे थेरे गोसा. लेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ ।
कठिन शब्दार्थ-अदूरसामंतेणं-निकट, वोइवयइ-गया, उवमियं-उपमा ।
भावार्थ-१० उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य, आनन्द नामक स्थविर थे । वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे और वे निरन्तर छठ-छठ की तपस्या करते हुए और संयम-तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । वे आनन्द स्थविर छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरिसी में स्वाध्याय आदि यावत् गौतम स्वामी के समान भगवान् से आज्ञा मांगी और
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