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भगवती सूत्र - श. १५
व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत
हुआ शीघ्रतापूर्वक उठा और सरसराट करता हुआ वल्मीक के शिखर पर चढ़ कर सूर्य की ओर देखा । सूर्य की ओर से दृष्टि हटा कर उस महा सर्प ने व्यापारी वर्ग की ओर अनिमेष दृष्टि से देखा । सर्पराज की दृष्टि मात्र से उन afrat को पात्र और उपकरणों सहित, एक ही प्रहार से कूटाघात ( पाषाण मय महा यन्त्र के आघात के समान) से तत्क्षण जला कर भस्म कर दिया। उन afणकों में से जो वणिक् उनका हितकामी यादत् निःश्रेयसकामी था, उस पर अनुकम्पा करके उस नागरूप देव ने भण्डोपकरण सहित अपने नगर में रख दिया ।'
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" एवामेव आणंदा ! तव वि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेणं णायपुत्त्रेणं ओराले परियाए आसाइए, ओराला कित्ति-सह- सिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुव्वंति, गुवंति थुवंति इति खलु 'समणे भगवं महावीरे' इति खलु 'समणे भगवं महावीरे' । तं जड़ मे से अज किंचि वि वदह तो णं तवेणं तेपणं एगाहच्चं कूडाहचं भासरासिं करोमि, जहा वा वालेणं ते वणिया । तुमं च णं आणंदा ! सारक्खामि, संगोवामि, जहा वा से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए जाव णिस्सेसकामए अनुकंपयाए देवयाए सभंड० जाव साहिए, तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस धम्मोवएसगस्स समणस्स णायपुत्तस्स एयमहं परिक हेहि "।
कठिन शब्दार्थ - गुवंति - गाये जाते हैं, थुवंति-स्तुति होती है । भावार्थ-इ
- इस प्रकार हे आनन्द ! तेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, श्रमण ज्ञात पुत्र ने उदार (प्रधान) पर्याय प्राप्त की है और देव मनुष्य एवं असुरों
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