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भगवती सूत्र - १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत २४११
सणियं उडेइ, उट्ठित्ता सरसरसरम्स वम्मीयस्स सिहरतलं दुरुहेइ, सिहरतलं दुरुहेत्ता आड़च्चं णिज्झाइ, आइन्च णिज्झाइत्ता ते वणिए अणिमिसाए दिट्टीए सव्वओं समंता ममभिलोएति । तरणं ते वणिया ते दिड्डीविसेर्ण सप्पेणं अणिमिसाए दिट्टीए सव्वओ समंता समभिलोइया ममाणा खिप्पामेव सहमत्तोवगरणमायाए एगाहच्चे कूडाहच्चं भासरासी कया यावि होत्या । तत्थ णं जे से वणिए ते िवणियाणं हियकामए, जाव हिय- सुह- णिस्सेसकामए से णं अणुकंपयाए देवयाए सभंडमत्तोवगरणमायाए णियगं णयरं साहिए" ।
कठिन शब्दार्थ-एगाहच्च - एक ही प्रहार से मार देना, कूडाहच्चं - पाषाणमय महायन्त्र की तरह आघात करना ।
भावार्थ-उस हितकामी यावत् निःश्रेयसकामी वणिक की बात पर उन व्यापारियों ने श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं की और वल्मीक के चौथे शिखर को तोड़ डाला । शिखर टूटते ही उसमें से उग्र विष वाला, प्रचण्ड विष वाला, घोर विष वाला, महाविष वाला, अतिकाय (मोटा ) मषि और मूषा के समान काले वर्ण वाला, दृष्टि के विष से रोष पूर्ण, काजल के पुञ्ज समान कान्ति वाला, लाल आँखों वाला, चपल एवं चलती हुई दो जिव्हा वाला, पृथ्वीतल के वेणी समान, उत्कट, स्पष्ट, कुटिल, जटिल, कर्कश, विस्तीर्ण, फटाटोप करने (फण को फैला कर विस्तृत करने) में दक्ष, अग्नि से तपाये हुए लोहे के समान धमधमायमान शब्द वाला, उग्र और तीव्र रोष वाला, त्वरित, चपल, धमधमायमान शब्द करने वाला इत्यादि विशेषणों से युक्त एक दृष्टि-विष सर्प का उन्हें स्पर्श हुआ । स्पर्श होते ही वह दृष्टि-विष सर्प अत्यन्त कुपित हुआ यावत् मिसमिसाट शब्द करता
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