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________________ भगवती सूत्र-श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत एसा चउत्थी वप्पा मा भिज्जउ चउत्थी णं वप्पा उवसग्गा यावि होत्था' | कठिन शब्दार्थ - - णिस्सेसिए - - कल्याणकारी, सउवसग्गा--उपद्रवकारा । भावार्थ- उन व्यापारियों में से एक वणिक उन सब का हितकामी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पक और निःश्रेयस चाहने वाला था । उसने अपने सभी साथियों से कहा - 'हे देवानुप्रियो ! हमें प्रथम शिखर तोड़ने से स्वच्छ जल मिला यावत् तीसरे को तोड़ने से मणिरत्न प्राप्त हुए। अब बत कीजिए, अपने लिये इतना पर्याप्त है । अब हमें इस चौथे शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर नहीं होगा । कदाचित् चौथा शिखर तोड़ना अपने लिये उपद्रवकारी हो सकता है । २४१० तणं ते वणिया तस्स वणियस्स हियकामगरस सुहकामगस्म जाव हिय- सुह- णिस्सेसका मगरस एवमाइरखमाणरस, जाव परूवेमाणस्स एयम णो सद्दति, जाव णो रोयंति, एयमहं असद्दहमाणा जाव अरोपमाणा तस्स वम्मीयस्स चउत्थं पिवपि भिंदंति । ते णं तत्थ उग्गविसं चडविसं घोरविसं महाविसं अइकायमहाकायं मसिमूसाकालगं यणविसरोसपुण्णं अंजणपुंजणिगरप्पगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचलचलंतजीहं धरणितलवेणिभूयं उपकड फुडकुडिलजडुलकक्खडविक डफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधमेंतघोसं अणागलियचंडतिव्वरोसं समुहिं तुरियं चवलं धर्मतं दिट्टिविसं सप्पं संघट्टेति । तएणं से दिट्टिविसे सप्पे ते हिं वणिएहिं संघट्टिए समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे सणियं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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