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भगवतो सूत्र-श. १५ गोशालक का भव-भ्रमण
उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किचा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले वेभेले सण्णिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पचायाहिति । तएणं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुवकबालभावं जोवणगमगुप्पतं पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विणएणं, पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलइस्संति । सा णं तस्स भारिया भविस्सइ इट्टा कंता जाव अणुमया-भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, रयणकरंडओ विव सुमारक्खिया, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उहं जाव परिस्सहोवसग्गा फुसंतु । तएणं सा दारिया अण्णया कयाइ गुब्बिणी ससुरकुलाओ कुलघरं णिजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किचा दाहिणिल्लेसु अग्गिकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति ।
कठिन शब्दार्थ-तेल्लकेला-तेल का भाजन, चेलपेडा-वस्त्र की पेटी ।
भावार्थ-फिर वह राजगृह नगर के बाहर (सामान्य) वेश्यापने उत्पन्न होगा। वहाँ शस्त्र से मारा जाने पर काल करके दूसरी बार राजगृह के भीतर (विशिष्ट) वेश्यापने उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाने पर यावत् काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विन्ध्य पर्वत के पास बिभेल नामक ग्राम में, ब्राह्मण कुल में पुत्री रूप से उत्पन्न होगा। वह पुत्री जब बाल्यावस्था का त्याग कर यौवन अवस्था को प्राप्त होगी, तब उसके माता-पिता उचित द्रव्य
और उचित विनय द्वारा पति को भार्या रूप से अर्पण करेंगे । वह उसकी स्त्री होगी। वह इष्ट, कान्त यावत् अनुमत, आभूषणों के करण्डिये तुल्य, तेल की
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