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________________ २१८० भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नरकावानों की एक दूसरे से विशालता ४ उत्तर-हाँ गौतम ! जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे नरयिक उद्देशक के अनुसार यहाँ भी कहना चाहिये । विवेचन-इस उद्देशक की ये दो द्वार गाथाएँ हैं नेरइय फास पणिही, निरयंते चेव लोयमझे य । दिसिविदिसाण य पवहा, पवत्तणं अस्थिकाएहि ।। अत्थि पएसफुसणा, ओगाहणया य जीवमोगाढा । अत्थि पएसनिसीयण, बहुस्समे लोगसंठाणे । अर्थात्-१ नैरयिक, २ स्पर्श, ३ प्रणिधि, ४ निरयान्त, ५ लोक मध्य, ६ दिशाविदिशा, ७ अस्तिकाय प्रवर्तन, ८ अस्तिकाय प्रदेश स्पर्शना, ९ अवगाहना, १० जीवावगाढ़, ११ अस्तिकाय निषीदन, १२ बहुसम, १३ लोक संस्थान । ऊपर नरयिक द्वार, स्पर्शद्वार, प्रणिधिद्वार और निर यान्तद्वार, इन चार द्वारों का वर्णन किया गया है। पहले द्वार में पहली नरक से लेकर मातवीं नरक तक के नरकावासों की परस्पर अल्पता और महत्ता, संकीर्णता और विशालता आदि का वर्णन किया गया है। तथा उन नरकावासों में रहे हुए नरयिकों की परस्पर महाकर्मता और अल्पकर्मता आदि का वर्णन किया गया है । 'वाक्य की प्रवृत्ति विधि और निषेध रूप से होती है-इस न्याय की अपेक्षा ऊपर जो बात विधि रूप से कही गई है, उसी बात का प्रतिपादन दूसरी बार निषेध रूप से किया गया हैं। 'रयिक किस प्रकार के स्पर्श का अनुभव करते हैं -यह स्पर्शद्वार में बतलाया गया है । उममें पृथ्वीकाय, अप्काय, ते जम्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय-इन पांचों कायों के स्पर्श का वर्णन किया गया है। शंका-सातों पृथ्वियों में तेजस्काय को छोड़ कर शप पृथ्वीकाय आदि चार कायों के स्पर्श का कथन करना उचित है । क्योंकि वे चारों कायें वहां पाई जाती हैं। वहां तेजस्काय के स्पर्श का कथन करना ठीक नहीं, क्योंकि बादर तेजस्काय, केवल समय-क्षेत्र (मनुष्य लोक) में ही पाई जाती है । यद्यपि सूक्ष्म तेजस्काय सातों पृथ्वियों में भी पाई जाती है, परन्तु वह स्पर्शनेन्द्रिय के लिए अविपय है अर्थात् म्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा सूक्ष्म तेजस्काय का अनुभव नहीं होता। फिर यहां तेजस्काय के स्पर्श का वर्णन कैसे किया गया है ? समाधान-गंका उचित है । वहाँ वादर तेजस्काय का सद्भाव नहीं है, परन्तु वहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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