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भगवती सूत्र-श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत
तेणं तत्थ अच्छं पत्थं जच्चं तणुयं फालियवण्णाभं ओरालं उदगरयणं आसाएंति । तएणं ते वणिया हट्टतुट० पाणियं पिबंति, पाणियं पिबित्ता वाहणाई पजेति, वाहणाइं पजेत्ता भायणाई भति।
___ कठिन शब्दार्थ-चिराईयाए अद्धाए-बहुत पुराने समय में, अत्यत्थी-धनार्थी, सगड़ीसागडेणं-गाई-गाड़ियों में, अगामियं-अभिलाषा के अविषय भूत अथवा-जिसमें कोई गांव नहीं-ऐसा वन, अणोहियं-अगाध, अडवि-अटवी, खोणे-क्षय हुआ, वम्मीयं-वल्मीक (बांबी), वप्पुओ-वल्मीक शिखर, अच्छे-स्वच्छ, पत्थं-पथ्यकारी, जच्चं-अकृत्रिम. तणयंहलका, फालियवण्णाभं-स्फटिक के समान वर्ण वाला।
भावार्थ-गोशालक ने आनन्द स्थविर से कहा-"हे आनन्द ! आज से बहुत काल पहले अनेक प्रकार के धन के अर्थी, धन के लोभी, धन के गवेषी, धनाकांक्षी एवं धन को तृष्णा वाले कई छोटे-बड़े वणिक, धन उपार्जन करने के लिये अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएं, अनेक गाड़े-गाड़ियों में भर कर और पर्याप्त अन्न पानी रूप पाथेय लेकर एक महा अटवी में प्रविष्ट हुए। वह अटवी ग्राम रहित, पानी के प्रवाह रहित, सार्थ आदि के आगमन से रहित और लम्बे मार्ग वाली थी। उस अटवी के कुछ भाग में जाने के बाद उनका साथ लिया हुआ पानी समाप्त हो गया । पानी रहित और तृषा से पीड़ित वे व्यापारी एक-दूसरे से कहने लगे-"हे देवानुप्रियो ! अपने साथ का पानी समाप्त हो गया है, इसलिये अब हमें इस अटवी में सभी ओर पानी की खोज करना श्रेयस्कर है । वे लोग उस अटवी में पानी की खोज करने लगे। पानी की खोज करते हुए उन्होंने एक बड़ा वनखण्ड देखा। वह वन-खण्ड श्याम और श्याम कान्ति वाला यावत् महामेघ के समूह जैसा प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् सुन्दर था। उस वन-खण्ड के मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक (बांबी) देखा । उस वल्मीक के सिंह की केशराल के समान ऊंचे उठे हुए चार शिखर थे। वे शिखर तिछे विस्तीर्ण, नीचे अर्द्ध सर्प के समान (विस्तीर्ण) और ऊपर संकुचित थे । अर्द्ध सर्प की आकृति वाले, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत् सुन्दर थे । उस वल्मीक को
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