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भगवती मूत्र-श. १७ उ. ३ संवेगादि का अंतिम फल
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१६ उत्तर-हे गौतम ! संवेग, निवेद यावत् मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल मोक्ष कहा गया है ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-यहाँ मवेग आदि ४९ पद कहे गये हैं, उनका अन्तिम फल मोक्ष है । इन पदों में जो कठिन पद हैं, उनका शब्दार्थ मात्र यहां दिया जाता है। संवेग-मोक्ष की भभिलापा । निर्वेद-मंमार मे विरक्ति । गुरुसार्मिक शुश्रूपा-गुरु महाराज और साधर्मी बन्धुओं की सेवा करना । आलोचना-गुरु महाराज के सामने अपने पापों को प्रकट करना । निन्दाआत्म-साक्षी मे अपने दोपों की निन्दा करना । गहरे-गुरु के सामने अपने दोषों को निन्दा करना । क्षमापना-अपने अपराधों की क्षमा मांगना नथा अपने प्रति किये गये अपराधों की दसरों को क्षमा देना । व्यपशमना-उपशान्नता। श्रत महायता-श्रत का अभ्यास । भावअप्रतिवद्धता-हास्यादि भावों में आसक्ति नहीं रखना। विनिवर्तना-पापों से निवृत होना । विविक्तशयनासनता-स्त्री, पुरुष और नपुंसक से रहित स्थान और आसन का सेवन करना। श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियों का संवर (अपने-अपने विषय में जाती हुई इन्द्रियों को रोकना)। योग प्रत्याख्यान - मन, वचन और काया के अशुभ योगों को रोकना । शरीर प्रत्याख्यान-शरीर में आमक्ति भाव का त्याग करना । कपाय प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करना । सम्भोग प्रत्याख्यान-साधु एक मण्डली में बैठ कर भोजन करते हैं, उसे 'सम्भोग' कहते हैं। जिनकल्पादि स्वीकार करके उस सम्भोग का त्याग करना 'सम्भोग प्रत्याख्यान' कहलाता है। उपधिप्रत्याख्यान-अधिक वस्त्रादि का त्याग करना । भक्तप्रत्याख्यान-आहारादि का त्याग करना । करण सत्य-प्रतिलेखन आदि क्रियाएं यथार्थ रूप से करना । मन, वचन और काया को वश में रखना-क्रमशः मन समन्वाहरण, वचन समन्वाहरण और काया समन्वाहरण कहलाता है। क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापों का त्याग करना-क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विवेक है । वेदनाध्यासनताक्षुधादि वेदना को सहन करना। मारणान्तिकाध्यासनता-मारणान्तिक कष्ट आने पर भी सहनशीलता रखना।
उपर्युक्त पदों का सेवन करने से जीव को मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होती है ।
, ॥ सतरहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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