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भगवती सूत्र श. १३ उ. २ देवों में दृष्टि
वाले जीव उत्पन्न नहीं होते, न च्यवते हैं और न सत्ता में ही होते हैं । इसी प्रकार तीनों आलापकों में अचरम का भी निषेध करना चाहिये, यावत् संख्यात चरम कहे गये हैं । शेष सभी वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिये । असंख्यात योजन के farare वाले विमानवासों में भी इनका कथन नहीं करना चाहिये । परन्तु उनमें अचरम भी हैं। शेष सभी वर्णन असंख्येय विस्तृत ग्रेवेयकों के समान कहना चाहिये । यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गये हैं' - तक कहना चाहिये ।
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उत्पन
विवेचन - अनुत्तर विमान पाँच हैं। यथा-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध | सर्वार्थसिद्ध विमान इन चारों विमानों के बीच में है और वह एक लाख योजन विस्तृत है । शेष विजयादि चार विमान असंख्यात योजन विस्तृत हैं । इन पांच अन्त्तर विमानों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये कृष्णपाक्षिक, अभव्य और तीन अज्ञान वाले का, तीनों आलापकों में निषेध किया गया है। जिस जीव का अनुतर विमान सम्बन्धी अन्तिम भव नहीं है. उसे यहाँ 'अचरम' कहा गया और उसका भी यहाँ निषेध किया गया है, क्यों कि सर्वार्थसिद्ध विमान में चरम ही उत्पन्न होते हैं, शेष चार विमानों में तो अचरम भी उत्पन्न होते हैं ।
देवों में दृष्टि
१४ प्रश्न - चोसट्टीए णं भंते ! असुरकुमारावासस्यसहस्से सु संखेज्ज वित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मदिट्टी असुरकुमारा उक्कजंति, मिच्छादिट्टी ० ?
१४ उत्तर - एवं जहा रयणप्पभाए तिष्णि आलावगा भणिया तन भाणियन्ना । एवं असंखेजवित्थडे वि तिष्णि गमगा एवं तत्र जाव गेवेज्जविमाणे +, अणुत्तरविमाणेसु एवं चेवः णवरं तिसु वि
+ यह पाठ ग्रेवेयक में भी तान दृष्टि होना स्पष्ट बता रहा है- डोशी ।
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