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भगवती सूत्र-श. १५ गोशालय का आगमन और दानिक प्रलाप ..
आउक्खएणं ३ जाव चइत्ता, दोच्चे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ २ । से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता हेडिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजइ ३ । से णं तत्थ दिव्वाइं जाव चइत्ता तच्चे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ ३। से णं तओहिंतो जाव उव्वट्टित्ता उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजइ ४ । से णं तत्थ दिव्वाई भोग० जाव चइत्ता चउत्थे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ ४ । से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता मझिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजइ ५ । से णं तत्थ दिव्वाइं भोग० जाव-चइत्ता पंचमे सण्णिगम्भे जीवे पञ्चायाइ ५ । से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता हिडिल्ले माणुग्मुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ ६ । से णं तत्थ दिव्वाई भोग० जाव-चइत्ता छठे सण्णिगब्भे जीवे पञ्चायाइ ६ ।
कठिन शब्दार्थ-ठप्पे-स्थाप्य, अवहाय-छोड़ कर।।
भावार्थ-उन गंगा नदियों के वालुका कण का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है । स्था-सूक्ष्म बोन्दि कलेवर रूप और बादर बोन्दि कलेवर रूप। इन में से सूक्ष्म बोन्दि कलेवर रूप उद्धार स्थाप्य है (यह निरुपयोगी है) अतएव उसका विचार करने की आवश्यकता नहीं है। उनमें से जो बादर बोन्दि कलेवर रूप उद्धार है, उसमें से सौ-सौ वर्षों में एक-एक वालुका कण निकाला जाय और जितने काल में उक्त गंगा के समुदाय रूप वह कोठा खाली हो, नीरज (रज रहित) हो, निर्लेप हो और निष्ठित (समाप्त)हो, तब एक 'शर प्रमाण काल कहलाता है। इस प्रकार के तीन लाख शर प्रमाण काल द्वारा एक 'महाकल्प' होता है। चौरासी लाख महाकल्प द्वारा एक 'महामानस' होता है । अनन्त संयूथ (अनंत
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