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भगवती सूत्र १५ गोशालक का आगमन और दामिक प्रलाप
जीव के समुदाय रूप निकाय से जीव च्यत्र कर संयूथ - देवभव में ) उपरितन मानस शर प्रमाण आयुष्य द्वारा उत्पन्न होता है और वहां दिव्य भोग भोगता है । उस देवलोक का आयुष्य, देवभव और देव-स्थिति का क्षय होने पर प्रथम संज्ञी गर्भज पञ्चेन्द्रिय मनुष्यपने उत्पन्न होता है । इसके बाद वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानस शर प्रमाण आयुष्य द्वारा संपूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य भोग भोगता है । वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति क्षय होने पर दूसरी बार संज्ञीगर्भ ( गर्भज मनुष्य ) में जन्मता है। इसके बाद वहाँ से मर कर तुरन्त अधस्तत मानस शर प्रमाण आयुष्य द्वारा संथ ( देवनिकाय) में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य भोग भोगकर, वहाँ से च्यव कर तीसरे संज्ञी-गर्भ में जन्मता है । वहाँ से यावत् निकल कर उपरितन मानसोतर ( महामानस ) आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य-भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर चौथे संज्ञी - गर्भ में जन्मता है । वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उपजता है । वहाँ दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से न्यव कर पांचवें संज्ञी-गर्भ में उत्पन्न होता है । वहाँ से मर कर तुरन्त अधस्तन जानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य-भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर छठे संज्ञी गर्भ में उत्पन्न होता है ।
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मेणं तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता वंभलोगे णामं से कप्पे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे, जहा ठाणपए जाव पंच वर्डेसगा पण्णत्ता, तं जहा - १ असोगवडेंसए, जाव पडि रूवा । से णं तत्थ देवे उववज्जइ ७ । से णं तत्थ दस सागरोवमाई दिव्वाई भोग० जाव चइत्ता सत्तमे सण्णिगन्भे जीवे पचायाइ ७ ।
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