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२४२४ भगवती सूत्र -श. १५ गोशालक का आगमन और प्रलाप
से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्टमाण० जाव वीइक्कंताणं सुकुमालगभद्दलए मिउकुंडल कुंचिय केसर मट्टगंडतलकण्णपीढए देवकुमारसप्प भए दारए पयाइ । से णं अहं कासवा ! तर अहं आउसो कासवा कोमारियपव्वजाए कोमारएणं बभ चेरवासेणं अविद्धकण्णए चेव संखाणं पडिलभामि; संखाणं पडिलभित्ता इमे सत्त पट्टपरिहारे परिहरामि तं जहा - १ एणेजस्स, २ मल्लरामस्स, ३ मंडियस्स, ४ रोहस्स, ५ भारद्दाइस्स, ६ अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स ७ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ।
भावार्थ- वहां से मर कर तुरन्त जो ब्रह्मलोक नामक कल्प ( देवलोक ) कहा गया है, वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है । प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार वर्णन, यावत् उसमें पांच अवतंसक विमान कहे गये हैं । यथा - अशोकावतंसक यावत् वे प्रतिरूप ( सुन्दर ) हैं । उस देवलोक में उत्पन्न होता है । वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर सातवें संज्ञी गर्भ में उत्पन्न होता है। वहां नौ मास और साढ़े सात रात्रिदिवस व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु और दर्भ के कुण्डल के समान संकुचित केश वाला, कान के आभूषणों से जिसके कपोल भाग शोभित हो रहे हैं ऐसा देवकुमार के समान कान्ति वाला एक बालक जन्मा हे काश्यप ! वह मैं हूँ । इसके पश्चात् हे आयुष्यमन् काश्यप ! कुमारावस्था में प्रव्रज्या द्वारा, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्य द्वारा, अविद्ध कर्ण (व्युत्पन्न बुद्धि वाले ) मुझे प्रव्रज्या ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न हुई और सात परिवृत्त परिहार (शरीरान्तर प्रवेश ) में संचार किया । यथा - १ ऐणेयक २ मल्लराम ३ मण्डिक ४ रोह ५ भारद्वाज, ६ गौतमपुत्रअर्जुन और ७ मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया ।
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