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________________ २६२८ भगवती सूत्र--ग. १७ उ. ४ आत्मकृत सुखदुःख और वेदना वेयणं वेएंति, तदुभयकडं वेयणं वेएंति ? ___११ उत्तर-गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेयणं वेएंति, णो परकडं, णो तदुभयकडं; एवं जाव वेमाणियाणं । * मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ सत्तरसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ।। कठिन शब्दार्थ-अत्तकडे-आत्मकृत। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के जो दुःख है वह आत्मकृत है, परकृत है या उभयकृत है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जीवों के जो दुःख है, वह आत्मकृत है, परकृत नहीं और उभयकृत भी नहीं है। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये । ९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! जीव, आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न उभयकृत दुःख वेदते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के जो वेदना है, वह आत्मकृत है, परकृत है या उभयकृत है ? १० उत्तर-हे गौतम ! जीवों के वेदना आत्मकृत है, परकृत नहीं और उभयकृत भी नहीं है । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना वेदते हैं या उभयकृत वेदना वेदते हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! जीव, आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत और उभयकृत वेदना नहीं वेदते । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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