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भगवती मूत्र-स. १५ मुनक्षत्र मुनि का होत्मन
मुणवत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते ममाणे आमुमते ५ सुणवत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेड़ । तएणं से सुणखत्ते अणगारे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए ममाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड, ते० २-गच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो बंदह णमंमइ, वंदित्ता णमंमित्ता सयमेव - पंच महन्वपाई आरुभेइ. म० २ आरुभेता समगा य समणीओ य खामेइ, सम० २ खामित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते आणु-: पुवीए कालगए।
कठिन शब्दार्थ-आरुमेह-आरोपित किया।
भावार्थ-१७-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी का अन्तेवासी कौशल देश (अयोध्या देश) में उत्पन्न हुआ सुनक्षत्र नामक अनगार था, जो प्रकृति से भद्र और विनीत था । उसने भी धर्माचार्य के अनुराग से सर्वानभूति के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत् हे गोशालक ! तू वही है, तेरी वही प्रकृति है, तू अन्य नहीं है । सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी जलाया । अंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जला हुआ सुनक्षत्र अनगार, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट आया और तीन बार प्रदक्षिणा देकर वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके स्वयं पंच महाव्रतों का उच्चारण किया और सभी साधु-साध्वियों को खमाया, फिर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुआ।
विवेचन-सर्वानुभूति के समान सुनक्षत्र अनगार पर भी गोशालक ने तेजोलेश्या छोड़ी। जिससे वे तुरन्त तो भस्म नहीं हुए, किन्तु जलने से घायल हो गये। उन्हें भगवान को वन्दना-नमस्कार कर, साधु-साध्वियों को खमाकर और आलोचना प्रतिक्रमण करने का अवसर प्राप्त हो गया । वे समाधि पूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए ।
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