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भगवती सूत्र या. १४ उ ६ देवेन्द्र के भोग
कठिन शब्दार्थ - भुंजिका मे-भोग करने की इच्छा वाले, णेमिपडिख्वगं - चक्र के आकार ।
-तक
भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र, भोगने योग्य मनोज्ञ स्पर्शादि भोगों को भोगने की इच्छा करता है, तब वह किस प्रकार भोगता है ? ३ उत्तरर - हे गौतम! उस समय देवन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के समान गोलाकार स्थान की विकुर्वणा करता है । उसकी लम्बाई चौड़ाई एक लाख योजन और परिधि तीन लाख ( तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल ) यावत् होती है । उस चक्र के आकार वाले स्थान के ऊपर बराबर बहुसम रमणीय भूमिभाग होता है ( वर्णन ) यावत् वह 'मनोज्ञ स्पर्शवाला होता है'कहना चाहिये । उस चक्राकार स्थान के ठीक मध्य भाग में एक महान् प्रासादाai ( प्रासादों में भूषण रूप सुन्दर भवन अर्थात् सभी भवनों में श्रेष्ठ भवन ) की विकुर्वणा करता है। वह ऊँचाई में पांच सौ योजन होता है। उसका विष्कम्भ (विस्तार) ढ़ाई सौ योजन होता है । वह प्रासाद अभ्युद्गत ( अत्यन्त ऊँचा ) और प्रभा के पुञ्ज से व्याप्त होने से मानो हँसता हुआ होता है, इत्यादि प्रासाद वर्णन जानना चाहिये, यावत् वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है । उस प्रासादावतंसक का ऊपरी भाग, पद्म और लताओं के चित्रण से विचित्र यावत् दर्शनीय होता है । उस प्रासादावतंसक के भीतर का भाग सम और रमणीय होता है, यावत् 'वहाँ मणियों का स्पर्श होता है' - तक जानना चाहिये । वहाँ आठ योजन ऊंची एक मणि-पीठिका होती है, जो वैमानिकों की मणिपीठिका के समान होती है । उस के ऊपर एक महान् देवशय्या की विकुर्वणा करता है। उस देवशय्या का वर्णन यावत् 'प्रतिरूप' तक कहना चाहिये । वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपने-अपने परिवार सहित आठ अग्रमहिषियों के साथ गन्धर्वानीक और नाटयानीक-इन दो प्रकार की अनीकाओं के साथ जोर से आहत ( बजाये हुए) नाट्य गीत और वादित्र के शब्दों द्वारा यावत् भोगने योग्य दिव्य भोगों को भोगता है ।
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