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________________ भगवनी मूत्र-श. ५. सम्यग्दर्शन और अंतिम आदेश २४५७ सम्यगदर्शन और अंतिम आदेश ३३-तएणं तस्स गोसालस्म मंग्वलिपुत्तस्म सत्तरत्तंसि परिणममाणंणि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था-'णो खलु अहं जिणे, जिणप्पलावी, जाव जिणसई पगासे. माणे विहरंति, अहं णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए, समणमारए, समणपडिणीए, आयरिय उवज्झायाणं अयसकारए, अवण्णकारए अकित्तिकारए, बहहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमोणे, वुप्पाएमाणे, विहरित्ता सएणं तेएणं अण्णाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं । समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासेमाणे विहरई' कठिन शब्दार्थ-समणघायए-श्रमण-घातक, दाह्नक्कतीए-दाह की उत्पत्ति से । भावार्थ-३३-तत्पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुई और उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुआ कि “मैं वास्तव में जिन नहीं हूं, तथापि मैं जिन-प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरा हूं। मैं श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी) आचार्य, उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवाद एवं अपकीति करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक हूं। मैं अत्यधिक असद्भावना पूर्ण मिथ्याभिनिवेश से अपने आपको, दूसरों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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