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भगवती सूत्र-श. १५ सम्यग्दर्शन और अंतिम आदेश
और स्व-पर उभय को व्युद्ग्राहित (भ्रान्त) करता हुआ, व्युत्पादित (मिथ्यात्व युक्त) करता हुआ विचरा और अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से व्याप्त तथा दाह से जलता हुआ छद्मस्थ अवस्था में ही सात रात्रि के अन्त में काल करूंगा। वास्तव में श्रमण भगवान महावीर ही जिन हैं और जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।"
___ एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता, आजीविए थेरे सद्दावेड, आजी. विए थेरे सदावित्ता उच्चावयसवहसाविए पकरेइ, उच्चा० २
पकरित्ता एवं वयासी-'णो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरिए, अहं गं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते, समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी, जाव जिणसदं पगासेमाणे विहरइ, तं तुम्भं णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता वामे पाए सुंबेणं बंधह, वा० २ बंधित्ता तिखुत्तो मुहे उट्ठहह, ति० २ उठुहित्ता मावत्थीए गयरीए सिंघाडग० जाव पहेसु आकड्ढविकडिंढ करेमाणा महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-'णो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते, समणघायए, जाव छउमत्थे चेव कालगए। समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी, जाव विहरई'-महया अणिइडी असकारसमुदएणं ममं सरीरगस्स णीहरणं करेजाह'
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