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भगवता सूत्र--- १५ सम्यग्दर्शन और अतिम आदेश
एवं वंदित्ता कालगए ।
कठिन शब्दार्थ - - संत्रेण --मुज्ज की रस्सी से शब्द कहना, आकडूविर्काट्ट-इधर-उधर घसीटते हुए ।
भावार्थ - इस प्रकार विचार कर गोशालक ने आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और अनेक प्रकार की शपथ दिला कर कहा- 'मैं वास्तव में जिन नहीं हूं, फिर भी जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरा हूं । में वही मंखलिपुत्र गोशालक हूं। मैं श्रमणों की घात करने वाला हूं यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊँगा । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।' इसलिये हे देवानुप्रियो ! जब मैं काल-धर्म को प्राप्त हो जाऊँ, तब मेरे बायें पैर को मुञ्ज की रस्सी से बांधना और तीन बार मेरे मुँह में थूकना, फिर श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक यावत् राजमार्गों में मुझे घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए कहना कि - "हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है, किन्तु जिन प्रलापी और जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरा है । यह श्रमणों की घात करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन हैं और जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं । इस प्रकार बिना ऋद्धि और असत्कार पूर्वक मेरे मृत शरीर का निष्क्रमण करना, " - ऐसा कह कर गोशालक काल-धर्म को प्राप्त हो गया ।
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उट्ठहह उच्छुभह थूकना अथवा
विवेचन - मिथ्यात्व एक ऐसा भयंकर शत्रु है, जो आत्मा को भान भूला देता है । मिथ्यात्व के वश गोशालक ने कैसे-कैसे अकार्य किये । किन्तु जब उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब उसकी अवस्था ही पलट जाती है । सम्यक्त्व का माहात्म्य अपरम्पार है । गोशालक ने अपने मानापमान की परवाह न करते हुए, आजीविक स्थविरों के सामने अपनी वास्तविक स्थिति प्रकट कर दी । यदि आयुष्य की स्थिति कुछ और होती, तो निश्चित ही वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में आ गिरता और अपने अपराधों की सच्चे अन्तःकरण पूर्वक क्षमा याचना करता ।
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