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________________ २४५६ भगवती सूत्र-श. १५ प्रतिष्ठा की महती लालसा पुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव जिणसई पगासेमाणे विहरिता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थयराणं चरिमे तित्थयरे सिद्धे, जाव सव्वदुक्खप्पहीणे'-इड्ढिसकारसमुदएणं मम सरीरगस्स णीहरणं करेह । तएणं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलि. पुत्तस्स एयमढें विणएणं पडिसुणेति । कठिन शब्दार्थ-हंसलक्खणं-हंस के चिन्ह वाला अथवा हंम के समान वेत, पडसाडगं-पटशाटक (वस्त्र),णियंसेह-पहिनावें, सीयं -शिविका, णीहरणं-निकालना, आभोएइजानकर, सुरभिणा-सुगंधित, गायाइं लूहेइ-गात्रों को पोंछना, महरिहं-महामूल्यवान् । भावार्थ-३२-मंखलिपुत्र गोशालक ने अपना मरण-काल निकट जान कर आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! जब मैं काल-धर्म को प्राप्त हो जाऊँ, तब सुगन्धित गन्धोदक से मुझे स्नान कराना, फिर सुकुमाल गन्ध-काषायिक वस्त्र से मेरे शरीर को पोंछना और सरस गोशीर्ष-चन्दन से शरीर का विलेपन करना । फिर हंस के चिन्ह वाला महामूल्यवान् पटशाटक पहनाना, फिर सभी अलंकारों से विभूषित करना। इसके बाद हजार पुरुषों से उठाने योग्य शिविका में बिठाना । शिविका में बिठा कर श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् राजमार्गों में उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना-"मंखलिपुत्र गोशालक जिन, जिन-प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचर कर, इस अवसर्पिणी काल के चौवीस तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थकर हो कर सिद्ध हुआ है यावत् समस्त दुःखों से रहित हुआ है।" इस प्रकार ऋद्धि और सत्कार के समुदाय से मेरे शरीर को बाहर निकालना। आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक की बात को विनय पूर्वक स्वीकार किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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