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________________ भगवती सूत्र - १३४ पंचास्तिकायमय लोक --- होते हैं । इस प्रकार यावत् अद्धा समय तक कहना चाहिये। यावत् - प्रश्न- अद्धा समय, कितने अद्धा समयों से स्पृष्ट होता है ? उत्तर - एक भी नहीं । विवेचन-धर्मारितकाय का एक प्रदेश जब लोकान्त के एक कोने में होता है, तब वह भूमि के निकट घर के काने के समान होता है। तत्र जघन्य पद में वहां धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, ऊपर के एक प्रदेश से और पास के दो प्रदेशों से इस प्रकार धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पष्ट होता है । उत्कृष्ट पद में चारों दिशाओं के चार प्रदेशों में और ऊर्ध्व तथा अधोदिशा के एक-एक प्रदेश से इस प्रकार छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । जिस प्रकार धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों में तथा धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से इस प्रकार चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । उत्कृष्ट पद में छह दिशाओं के छह प्रदेशों से और धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से इस प्रकार सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । लोकान्त में भी अलोकाकाश होता है. इसलिये आकाशास्तिकाय के पूर्वोक्त सात प्रदेशों की स्पर्शना होती है । धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश पर और उसके पास अनन्त जीवों के अनन्त प्रदेश विद्यमान होने से वह धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, जीव के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से भी स्पृष्ट होता है । २२०५ S Jain Education International अद्धा समय केवल समय-क्षेत्र (ढ़ाई द्वीप और दो समुद्र ) में ही होता है, बाहर नहीं होता | क्योंकि समयादि काल, सूर्य की गति से ही निप्पन्न होता है, उस से धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है, तो अनन्त अद्धा समयों से स्पृष्ट होता है, क्योंकि वे अनादि हैं। इसलिये उनकी अनन्त समय की स्पर्शना होती है । अथवा वर्त्तमान समय विशिष्ट अनन्त द्रव्य उपचार से अनन्त समय कहलाते हैं । इसलिये 'अनन्त समयों से स्पृष्ट हुआ' - ऐसा कहलाता है । अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों द्वारा स्पर्शना, धर्मास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्शना के समान जाननी चाहिये । आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, लोक की अपेक्षा धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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