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भगवती सूत्र-श. १६ उ. १० अवधिज्ञान के प्रकार
विवेचन-जिस प्रकार दूसरे शतक के आठवें उद्देशक में चमरेन्द्र की मुधर्मा सभा के विषय में वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार बलि के विषय में भी कहनी चाहिये । वहाँ जिस प्रकार तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत का प्रमाण कहा है, उसी प्रकार यहाँ रुचकेंद्र नामक उत्पात पर्वत का प्रमाण है। तिगिच्छकुट पर्वत के ऊपर रहे हुए प्रासादावतंसकों का जो प्रमाण कहा गया है, वही प्रमाण रुचकेंद्र नामक उत्पात पर्वत पर रहे हुए प्रासादावतंसकों का है। उन प्रासादावतंसकों के मध्यभाग में रहे हए बलि का सिंहासन तथा उसके परिवार के सिंहासनों का वर्णन चमरेन्द्र के समान जानना चाहिये । विशेषता यह है कि बलि के सामानिक देवों के सिंहासन साठ हजार हैं और आत्म-रक्षक देवों के आसन उनसे चौगुणा हैं । जिन प्रकार तिगिच्छकूट नाम का अन्वर्थ कहा गया, उसी प्रकार यहाँ रुचकेंद्र का भी अन्वर्थ कहना चाहिये। वहाँ तिगिच्छकट में तिगिच्छरत्नों की प्रभा वाले उत्पलादि हैं । इसलिये तिगिच्छकूट कहलाता है। उसी प्रकार यहाँ रुचकेंद्र रत्नों की प्रभा वाले उत्पलादि हैं। इसलिये रुचकेंद्रकट कहलाता है। नगरी का प्रमाण कहने के पश्चात प्राकार उसके द्वार, उपकारिकालयन, द्वार के ऊपर के गृह, प्रासादावतंसक, मुधर्म सभा, चैत्य भवन (सिद्धायतन) उपपात सभा, हृद, अभिषेक सभा, आलंकारिक सभा और व्यवसाय सभा आदि का स्वरूप और प्रमाण वलिपीठ के वर्णन तक कहना चाहिये ।
॥ सोलहवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक १६ उद्देशक १०
अवधिज्ञान के प्रकार
१ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! ओही पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! दुविहा ओही पण्णत्ता । ओहीपदं गिरव
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