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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ स्वप्न की अवस्था और प्रकार
प्राणी भी स्वप्न नहीं देखता, सुप्त-जाग्रत प्राणी स्वप्न देखता है।
३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव सोये हुए हैं, जाग्रत हैं या सुप्तजाग्रत हैं ?
३ उत्तर-हे गौतम ! जीव सुप्त भी हैं, जाग्रत भी हैं और सुप्तजाग्रत भी हैं।
४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक सुप्त हैं इत्यादि प्रश्न ।
४ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक सुप्त हैं, जाग्रत नहीं और सुप्तजाग्रत भी नहीं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक कहना चाहिये ।।
५ प्रश्न-हे भगवन ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव सुप्त हैं, इत्यादि प्रश्न ।
__५ उत्तर-हे गौतम ! वे सुप्त हैं, जाग्रत नहीं हैं, सुप्तजाग्रत हैं । मनुष्य के सम्बन्ध में सामान्य जीवों के समान जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान जानना चाहिये।
विवेचन-सुप्त अवस्था में किसी भी अर्थ के विकल्प का अनुभव करना 'स्वप्न' कहलाता है। इसके पांच भेद हैं । यथा- १ यथातथ्य स्वप्न-दर्शन-स्वप्न में जिस वस्तु-स्वरूप का दर्शन हुआ, जाग्रत होने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभा-शुभ फल की प्राप्ति होना-'यथातथ्य स्वप्न-दर्शन' कहलाता है । इसके दो भेद हैं । यथा-दृष्टार्थाविसंवादी
और फलाविसंवादी । स्वप्न में देखे हुए अर्थ के अनुसार जाग्रतावस्था में घटना घटित होना 'दष्टार्थाविसंवादी' स्वप्न है । जैसे-किसी मनुष्य ने स्वप्न में देखा कि किसी ने मेरे हाथ में फल दिया। जाग्रत होने पर उसी प्रकार का बनाव बने अर्थात् उसके हाथ में कोई फल दे । स्वप्न के अनुसार जिसका फल (परिणाम) अवश्य मिले, वह 'फलाविसंवादी' स्वप्न है । जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने आपको हाथी-घोड़े आदि पर बैठा देखा और जाग्रत होने पर कालान्तर में उसे धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति हो ।
(२) प्रतान स्वप्न-दर्शन-प्रतान का अर्थ है विस्तार-विस्तार वाला स्वप्न देखना 'प्रतान स्वप्न-दर्शन' है । यह सत्य भी हो सकता है और असत्य भी।
(३) चिन्ता स्वप्न-दर्शन-जाग्रतावस्था में जिस वस्तु की चिन्ता रही हो अथवा जिस अर्थ का चिन्तन किया हो, स्वप्न में उसी को देखना 'चिन्ता स्वप्न-दर्शन' है ।
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