SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. २ उन्माद के भेद 'उन्माद' कहते हैं । यह दो प्रकार का है- १ यक्षावेश उन्माद और २ मोहनीय उन्माद | यक्षावेश उन्माद - शरीर में यक्ष आदि देव विशेष के प्रवेश करने से जो उन्माद होता है, उसे 'यक्षावेश उन्माद' कहते हैं । मोहनीय उन्माद - मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का पारमार्थिक ( वास्तविक सत् असत् का ) विवेक नष्ट हो जाता है, उसे 'मोहनीय उन्माद' कहते हैं । इसके दो भेद हैं- १ मिथ्यात्व - मोहनीय उन्माद और २ चारित्र - मोहनीय उन्माद । मिथ्यात्वमोहनीय उन्माद से जीव अतत्त्व को तत्त्व मानता है और तत्त्व को अतत्त्व मानता है । चारित्र मोहनीय उन्माद से जीव विषयादि के स्वरूप को जानता हुआ भी अज्ञानी के समान उनमें प्रवृत्ति करता है । अथवा चारित्रमोहनीय की 'वेद' नामक प्रकृति है, उसके उदय से जीव हिताहित का भान भूल कर उन्मत्त हो जाता है। जैसा कि कहा है: २२९० " चिते दट्ठमिच्छs दोहं नीससइ तह जरे दाहे । भत्तअरोअग मुच्छा उम्माय न याणइ मरणं ।। " अर्थात् वेदोदय से उन्मत्त बना हुआ जीव, विषयों का चिन्तन करता है, उन्हें देखने की इच्छा करता है, नहीं मिलने पर दीर्घ निःश्वास लेता है, फिर ज्वर और दाहग्रस्त पुरुष के समान पीड़ित होता है, अन्न-पानी में अरुचि हो जाती है, फिर मुर्च्छा आती है, फिर उन्मत्त ( विक्षिप्त चित्त - पागल ) हो जाता है और यहाँ तक कि मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है । इन दोनों उन्मादों में से मोहजन्य उन्माद की अपेक्षा यक्षावेश उन्माद सुखपूर्वक वेदने योग्य और सुखपूर्वक छुड़ाने योग्य होता है । यक्षावेश उन्माद की अपेक्षा मोहजन्य उन्माद दुःखपूर्वक वेदन किया जाता है। क्योंकि वह अनन्त संसार - परिभ्रमण का कारण होता है और संसार परिभ्रमण रूप दुःख-वेदन उसका स्वभाव होता है । यक्षावेश, सुख वेदनतर है, क्योंकि वह एक भवाश्रयी होता है । मोहनीय उन्माद का छुड़ाना सरल नहीं होता, वह दुःखपूर्वक छुड़ाया जा सकता है । विद्या, मन्त्र, तन्त्र और देवों द्वारा भी उसका छुड़ाया जाना अशक्य है । यक्षावेश सुख-विमोचनतर है । यक्षाविष्ट पुरुष को खोड़ा-बेड़ी आदि बन्धन में डाल देने पर वह वश में हो जाता है । कहा भी है: Jain Education International "सर्वज्ञ मन्त्रवाद्यपि यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः स केन किल कथ्यतां तुल्यः ?" अर्थात्-सर्वज्ञ रूप मन्त्रवादी महापुरुष मी मोहजन्य उन्माद से उन्मत्त बने हुए सभी पुरुषों को, अपने वश में करने ( उनके मिथ्यात्व रूपी मोहउन्माद को दूर करने) में For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy