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भगवती मत्र-ग. ५३ उ. ४ लोक का मध्य-भाग
रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग पर मेरु पर्वत के विलकुल मध्य में आठ रुचक-प्रदेश है। वे गो स्तन के आकार वाले हैं-चार ऊपर की ओर उठे हुए है और चार नीचे की ओर । इन्हीं मचक-प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशाओ और विदिशाओं का ज्ञान होता है। रुचक-प्रदेशों के नौ मौ योजन ऊपर तथा नो मो योजन नीचे तक तिर्यग्लोक (मध्यलोक) है । तिर्यगलोक के नीचे अधोलोक है और ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक की लम्बाई कुछ कम सात रज्जू परिमाण है और अधोलोक की लम्बाई कुछ अधिक सात रज्ज परिमाग है । रुचक-प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभा पृथ्वी में, चौदह रजन रूप लोक का मध्यभाग आता है । वहां से ऊपर तथा नीचे लोक का परिमाण ठीक सातसात रज्जू रह जाता है ।
चौथी और पांचवीं पृथ्वी के मध्य जो अवकागान्तर है, उसका सातिरेक ( कुछ अधिक) अर्द्ध भाग का उल्लंघन करने पर अधोलोक का मध्यभाग है।
. मनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक मे ऊपर और पांचवें ब्रह्म देवलोक के नीचे रिष्ट नामक तीसरे प्रतर में ऊर्ध्वलोक का मध्यभाग है ।
लोक का आकार वज्र के आकार के ममान होता है। इस रत्नप्रभा पथ्वी के रत्नकाण्ड में सब से छोटे दो प्रतर हैं। ऊपर के प्रतर से लोक की ऊर्ध्वमुखी वृद्धि होती है और नीचे के प्रतर से लोक को अधोमुखी वृद्धि होती है । यहीं तिर्यग्लोक का मध्य भाग है और यहीं आठ रुचक-प्रदेश हैं। जिनमे दस दिशाएं निकली हैं । वे इस प्रकार हैं-१ पूर्व, २ दक्षिण, ३ पश्चिम, ४ उत्तर, ये चार मुख्य दिशाएं हैं, तथा-५ अग्नि कोण, ६ नैऋत्य कोण, ७ वायव्य कोण ८ ईशान कोण, ९ ऊर्ध्वदिशा और १. अधोदिशा ।
पूर्व महाविदेह की ओर पूर्व दिशा है, पश्चिम महाविदेह की ओर पश्चिम दिशा हैं. भरत की ओर दक्षिण दिशा है और परवत की ओर उत्तर दिशा है । पूर्व और दक्षिण के मध्य की 'अग्नि कोण,' दक्षिण और पश्चिम के बीच की 'नैऋत्य कोण, पश्चिम और उत्तर के बीच की 'वायव्य कोण' और उत्तर और पूर्व के बीच की 'ईशान कोण, कहलाती है । रुचक-प्रदेशों की सीध में ऊपर की ओर 'ऊर्ध्वदिशा' और नीचे की ओर 'अधोदिशा' कहलाती है । इन दस दिशाओं के गुण निष्पन्न नाम ये हैं-१ ऐन्द्री, २ आग्नेयी ३ याम्या, ४ नैऋती, ५ वारुणी, ६ वायव्य, ७ मोम्या, ८ ऐशानी, ९ विमला और १० नमा।
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