SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र-श. : 3.1 न या विस्तारादि २१४३ वि । जहण्णेणं एका वा दो वा तिण्णि वा, उकोमेणं संखेजा कायजोगी उब्वटंति, एवं सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि । ___ कठिन शब्दार्थ - उध्वट्टति- उद्वर्तते हैं-निकलते हैं, सागारोव उत्ता-साकारोपयुक्तज्ञानोपयोग बाले, अगागारोवउत्ता-अनाकारोपयुक्त-दर्शनोपयोग वाले। भावार्थ--५ प्रश्न-हे भगवन ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संघात योजन विस्तार वाले नरकावास है, उनमें से एक समय में कितने नरयिक जीव उद्वर्तते हैं-निकलते हैं (मरते हैं) ? कितने कापोतलेशी नैयिक उद्वर्तते हैं ? यावत् कितने अनाकारोपयुक्त (दर्शनोपयोग वाले) नरयिक उद्वर्तते है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावाप्त हैं, उनमें से एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उद्वर्तते हैं, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कापोत-लेशी नरयिक उद्वर्तते है । इसी प्रकार यावत् संज्ञी-जीव तक नैरयिक उद्वर्तना कहनी चाहिए । असंज्ञी-जीव नहीं उदवर्तते । भवसिद्धिक नरयिक जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात - उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार यावत् श्रुतअज्ञानी तक उद्वर्तना कहनी चाहिए। विभंगज्ञानी और चक्षुदर्शनी नहीं उद्वर्तते। अचक्षुदर्शनी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार यावत् लोभ-कषायी नैरयिक जीवों तक उद्वर्तना कहनी चाहिए। श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग वाले नरयिक जीव नहीं उद्वर्तते । इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के उपयोग वाले भी नहीं उद्वर्तते । नोइन्द्रियोपयुक्त नरयिक जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। मन-योगी और वचन-योगी नहीं उद्वर्तते । काय-योगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले नरयिक जीवों की उद्वर्तना कहनी चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy