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भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ शक्रेन्द्र के आगमन का कारण
अमुक अंश परिणत हो चुका है, वे सर्वथा अपरिणत नहीं रहे । परिणमते हैं-' यह कथन उस परिणाम के सद्भाव में ही हो सकता है, अन्यथा नहीं । जब कि परिणाम का सद्भाव मान लिया गया हो, तो अमुक अंश में उनका परिणतपना भी अवश्य मानना ही चाहियं । यदि अमुक अंश में परिणमन होने पर भी उसका परिणमन न माना जाय, तो परिणतपने का सर्वथा अभाव हो जायगा :
एवं पडिहणित्ता ओहिं पउंजइ, ओहिं पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ, ममं आभोएत्ता अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे. जेणेव भारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे णयरे, जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव विह. रइ, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जु. वासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं० परियारो जहा सूरियाभस्स जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे णयरे, जेणेव एगजंदुए चेइए, जेणेव ममं अतियं तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तएणं से सक्के देविंदे देव. राया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणु. भागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता संभंतिय जाव पडिगए।
भावार्थ-इसके पश्चात् अमायो सम्यगदृष्टि देव ने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर मुझे देखा । उसे विचार उत्पन्न हुआ कि इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र
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