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भगवत। सूत्र-१. १' गाशाला का पृथक होना
तया ममं एवं आइक्खह, जाव परवेह-'गोसाला ! एम णं तिलथं. भए णिप्फजिस्सइ, णो ण णिप्फजिरसइ, तं चेव जाव पञ्चा. याइस्संति' तं णं मिच्छा, इमं च णं पञ्चक्खमेव दीसह-'पस णं से तिलथंभए णो णिफण्णे अणिप्फण्णमेव । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता. उद्दाइत्ता णो एयस्स चेव तिलथंभगस्स- एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया' ।
कठिन शब्दार्थ-आइक्खह--कहा था ।
भावार्थ-७-इसके बाद हे गौतम ! अन्यदा एक दिन मंलिपुत्र गोशालक के साथ में कर्मग्राम नगर से सिद्धार्थ ग्राम नगर की ओर जाने लगा । जब हम उस तिल के पौधे के स्थान के निकट आये, तो गोशालक ने मुझ से कहा"हे भगवन् ! आपने मुझे उप्त समय कहा था कि "हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा यावत् तिलपुष्प के जीव सात तिल रूप से उत्पन्न होंगे, किंतु आपको वह बात मिथ्या हुई। क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा ऊगा ही नहीं और वे तिलपुष्प के सात जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल रूप से उत्पन्न नहीं हुए।"
तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुमं णं गोसाला ! तया ममं एवं आइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमटुं णो सद्दहसि, णो पत्तियसि, णो रोयसि, एयमटुं असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयं णं मिच्छा. "वाई भवः' त्ति कटु ममं अंतियाओ सणियं सणियं पञ्चोसकसि,
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