________________
भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक का पृथक् होना
डरा यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोला- " हे भगवन् ! संक्षिप्त- विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त होती है ? " मैंने कहा - " हे गोशालक ! नख सहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें उतने मात्र से और एक विकटाशय ( चुल्लू भर ) पानी से निरन्तर छठ-छठ की तपस्या के साथ दोनों हाथ ऊँचे रख कर यावत् आतापना लेने वाले पुरुष को छह मान के अन्त में संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है । गोशालक ने मेरे कथन को विनयपूर्वक सम्यग् रूप से स्वीकार किया ।
२३९६
विवेचन वैश्यायन बालतपस्वी के लिये गोशालक ने 'मुर्गा, मुणिए' इन दो शब्दों का प्रयोग किया है । इसका टीकाकार ने पहला अर्थ तो यह किया है कि- 'मणि' अर्थात् तत्त्वों को जान कर 'मुणी' - मुनि अर्थात् तपस्वी ।' दूसरा अर्थ किया है 'मुणी अर्थात् तपस्विनी और 'मुणिए' अर्थात् तपस्वी । तीसरा अर्थ किया है-'मृणी' अर्थात् यति-मुनि और 'मुणिए' अर्थात् ग्रहगृहीत ( ग्रह से गृहीत ) |
भगवान् ने गोशालक की रक्षा की, इसका कारण यह है कि भगवान् दया के सागर हैं। आगे सुनक्षत्र और सर्वानुभूति इन दो मुनियों की रक्षा नहीं करेंगे, इसका कारण यह है कि यह अवश्यंभावी भाव था अर्थात् ऐसा होनहार था ।
तेजोलेश्या अप्रयोगकाल में संक्षिप्त होती है और प्रयोगकाल में विपुल होती है । इसलिए 'संक्षिप्त - विपुल तेजोलेश्या' - ऐसा कहा गया है ।
गोशालक का पृथक होना
७- तणं अहं गोयमा ! अण्णया कयाड़ गोसा लेणं मंखलिपुत्तेणं सधि कुम्मगामाओ णयराओ सिद्धत्थग्गामं णयरं संपट्टिए विहाराए, जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए । तणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी तुम्भे णं भंते !
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org