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भगवती मूत्र-श. १५ गोगालक की दुर्दशा
मित्ता जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागन्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिकबुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति आ० २-करेत्ता वंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंपजित्ता णं विहरंति, अत्थेगड़या आजीविया थेरा गोसालं चेव मंग्वलिपुत्तं उपसंपजित्ता णं विहरति ।
कठिन शब्दार्थ-उबसपज्जिता प्राप्त होकर ।
भावार्थ-२१-श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा प्रतिचोदना एवं अर्थ, हेतु, व्याकरण एवं प्रश्नों से यावत् निरुत्तर किया गया, तब गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ, यावत् मिममिसाहट करता हुआ क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित हुआ, परन्तु श्रमणनिग्रन्थों के शरीर को कुछ भी पीड़ा, उपद्रव तथा अवयव-छेद करने में समर्थ नहीं हुआ। जब आजीविक स्थविरों ने यह देखा कि श्रमण-निर्ग्रन्थों से धर्म सम्बन्धी प्रतिचोदना, प्रतिसारणा और प्रत्युपचार द्वारा तथा अर्थ, हेतु. व्याकरण, प्रश्नोत्तर से गोशालक निरुतर कर दिया गया है, जिससे गोशालक अत्यन्त कुपित यावत् क्रोध से प्रज्वलित हो रहा है, किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को कुछ भी पीड़ा उपद्रव एवं अवयव छेद नहीं कर सका, तब वे आजीविक, मंखलिपुत्र गोशालक के आश्रय से निकल कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आश्रय में आये और तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया, तथा श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आश्रय ले कर विचरने लगे और कुछ आजीविक स्थविर, मंखलिपुत्र गोशालक का आश्रय ले कर ही विचरते रहे ।
गोशालक की दुर्दशा
२२-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्ठाए हव्वमागए तमढें
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