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भगवती सूत्र-श. १: उ. ७ मन और काया आत्मा है या अनात्मा ?
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काय ओर संसारी आत्मा, परस्पर अभिन्न रूप से रहते हैं । औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा काया आत्मा से भिन्न है। ___औदारिकादि शरीरों की अपेक्षा काया रूपी है किंतु कार्मण-काय रूपी होते हुए भी अनि सूक्ष्म होने से काया को अरूपी भी माना गया है ।
जीवित अवस्था में चैतन्य युक्त होने से काया सचित्त है और मृतावग्था में चैतन्य का अभाव होने से काया अचित्त भी है । विवक्षित उच्छ्वासादि प्राणयुक्त होने से औदारिकादि शरीर की अपेक्षा काया जीव भी है और उच्छ्वासादि रहित. होने पर काया अजीव भी है । जीवों के भी काय (शरीर) होता है और लेप आदि से बनाया हुआ शरीर का आकार अजीव-काय भी है।
जीव का सम्बन्ध होने के पहले भी काया होती है। जैसे कि मेंढक का मृत कलेवर । उसमें भविष्य में जीव का सम्बन्ध होते वह जीव का काय बन जाता है । जीव के द्वारा उपचित किया जाता हुआ भी काय होता है । जैसे कि-जीवित शरीर । काय ममय व्यतीत हो जाने पर भी काय होता है । जैसे कि-मृत कलेवर ।।
जिम घड़े में मध रखने का विचार हो, उसको शहद भरने के पहले ही 'मधु-घट' कहते हैं. उसी प्रकार जीव के द्वारा काय रूप से ग्रहण करने के पूर्व भी प्रतिक्षण पुद्गलों का चय-अपचय होने के कारण द्रव्य-काय का भेदन होता है । जीव के द्वारा ग्रहण करने के समय भी काय का भेदन होता है । जैसे कि-बालू-रेत के कणों से भरी हुई मुष्टि के समान उस काय में से पुद्गल प्रतिक्षण परिणटित होते रहते हैं । जिस प्रकार जिस घड़े में घी रखा था, अब उसमें से घी निकाल लेने पर भी उसे 'घृतघट' कहते हैं। उसी प्रकार कायसमय व्यतीत हो जाने पर भी भूत-भाव की अपेक्षा उसे 'काय' कहते हैं । ।
चूंर्णिकार ने तो काय शब्द का अर्थ सब पदार्थों का सामान्य 'चय' रूप किया है। इसका यह अभिप्राय है कि आत्मा भी काय अर्थात् प्रदेश संचय है और पुद्गल आदि प्रदेश संचय रूप होने से काय आत्मा से भिन्न भी है। पुद्गल स्कन्धों की अपेक्षा काय रूपी भी है और जीव धर्मास्तिकायादि की अपेक्षा काय अरूपी भी । जीवित शरीर की अपेक्षा काय सचित्त भी है और अचेतन संचय की अपेक्षा काय अचित भी । उच्छ्वासादियुक्त अवयव संचय की अपेक्षा काय जीव है और उच्छ्वासादि अवयव संचय के अभाव में काय अजीव भी । जीव का काय अर्थात् जीव-राशि और अजीव का काय अर्थात् परमाणु आदि की राशि । इस प्रकार अपेक्षा विशेष से काय शब्द का भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन
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