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मगवती सूत्र-श. १५ आक्रमणकारी स्वयं आहत
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आ० २ करित्ता उड्ढं वेहासं उप्पइए; से णं तओ पडिहए पडिणियत्ते समाणे तमेव गोसालस्म मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २ अंतो २ अणुप्पवितु।
__ कठिन शब्दार्थ-पच्चोसक्कइ-पीछे हटा, वायक्कलिया-वातात्कालिका-ठहर-ठहर कर चलने वाली हवा, वायमंडलिया-मण्डलाकार वायु-मलिया।
भावार्थ-१८-अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जला कर गोशालक तीसरी बार फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पर अनेक प्रकार के अनुचित वचनों द्वारा आक्रोश करने लगा, इत्यादि पूर्ववत, यावत् 'आज मुझ से तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है ।' तब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा- "हे गोशालक ! जो तथा प्रकार के श्रमणमाहण से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि, यावत् वह भी उसको पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या है ? मैंने तुझे प्रवजित किया यावत् मैंने तुझे बहुश्रुत किया, अब मेरे साथ ही तूने इस प्रकार मिथ्यात्व (अनार्यपन) स्वीकार किया है । हे गोशालक ! ऐसा मत कर । ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है । यावत् तू वही है, अन्य नहीं है। तेरी वही प्रकृति है ।"
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और तैजस समुद्घात कर के सात, आठ चरण पीछे हटा और श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वध करने के लिये अपने शरीर में से तेजोलेश्या निकाली। जिस प्रकार वातोत्कलिका (ठहर-ठहर कर चलने वाली वायु) और मण्डलाकार वायु पर्वत, भीत, स्तम्भ या स्तूप द्वारा स्खलित एवं निवृत हो जाती है, किन्तु उसे गिराने में समर्थ-विशेष समर्थ नहीं हो सकती, इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वध करने के लिये मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने शरीर में से बाहर निकाली हुई तपोजन्य तेजोलेश्या, भगवान् को क्षति पहुंचाने में समर्थ
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